छत्तीसगढ़ के तुरतुरिया से भगवान श्रीराम का खास संबंध है। यहां त्रेतायुग में महर्षि वाल्मिकी का आश्रम था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब भगवान श्रीराम ने माता-सीता का परित्याग किया तो लक्ष्मण उन्हें महर्षि वाल्मिकी के इसी आश्रम में लेकर आए थे। तुरतुरिया आश्रम में ही सीता माता ने लव और कुश का जन्म दिया था।
बुलबुले से निकलती है तुरतुर की ध्वनि

इस मंदिर का नाम तुरतुरिया होने का मुख्य कारण यह है कि बलभद्र नाले का चट्टानों से होकर गुजरना और उसके नीचे गिरने के बाद उससे निकलने वाली बुलबुले से तुरतुर की ध्वनि निकालती है। इसी तुरतुर ध्वनि के कारण से इसे तुरतुरिया धाम के नाम से जाना जाता है। इसके साथ ही इसे सुरसुरी गंगा भी कहा जाता है।

तुरतुरिया में मौजूद है बालम दही नदी

तुरतुरिया में बालम दही नदी मौजूद है। कहा जाता है कि सीता मैया ने राम जी के लिए वाल्मीकि के कहने पर यहां तपस्या की थी। जिसके बहुत से आलेख यहां मिलते हैं, हालांकि श्रीराम वनगमन पथ के दौरान इस जगह को कुछ संवारने का प्रयास किया गया है जो तुरतुरिया को प्रसिद्ध भी बनाता है।
तुरतुरिया – बाल्मीकि आश्रम एवं लव-कुश की जन्मस्थली
वर्ग ऐतिहासिक, धार्मिक
तुरतुरिया एक प्राकृतिक एवं धार्मिक स्थल है जो रायपुर जिले से 84 किमी. एवं बलौदाबाजार जिले से 29 किमी., कसडोल तहसील से 12 किमी., बोरोई से 5 किमी. एवं सिरपुर से 23 किमी. दूर स्थित है, जिसे तुरतुरिया के नाम से जाना जाता है। उक्त स्थल को सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान प्राकृतिक दृश्यों से परिपूर्ण एक मनोरम स्थल है जो चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इसके आसपास बारनवापारा वन्य जीव अभ्यारण्य भी स्थित है। तुरतुरिया बहरिया नामक गांव के पास बलभद्री नाले पर स्थित है। कहा जाता है कि त्रेतायुग में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यहीं पर था और यही लव-कुश की जन्मस्थली थी।
इस स्थान का नाम तुरतुरिया इसलिए पड़ा क्योंकि बलभद्री नाले का जल प्रवाह चट्टान से होकर गुजरता है, तब उसमें से उठने वाली तरंगों के कारण तुर इसका जल प्रवाह एक लम्बी संकरी सुरंग से होकर एक कुंड में गिरता है जिसका निर्माण प्राचीन ईंटों से किया गया है। जिस स्थान पर यह जल कुंड में गिरता है, वहां एक गाय का मुख बना हुआ है, जिसके कारण उसके मुख से जल निकलता हुआ दिखाई देता है। गोमुख के दोनों ओर दो प्राचीन पाषाण प्रतिमाएं स्थापित हैं, जो विष्णु जी की हैं, इनमें से एक खड़ी मुद्रा में है तथा दूसरी प्रतिमा में विष्णु जी को शेषनाग पर बैठे हुए दिखाया गया है। कुंड के पास दो वीर व्यक्तियों की प्राचीन पाषाण प्रतिमाएं
बनी हुई हैं, जिनमें क्रमश: एक वीर सिंह को तलवार के साथ प्रदर्शित किया गया है, तथा दूसरी प्रतिमा में एक अन्य वीर व्यक्ति को पशु की गर्दन पहनाते हुए दिखाया गया है। इस स्थान पर शिवलिंग तो मिले ही हैं, इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण स्तम्भ भी काफी मात्रा में बिखरे पड़े हैं, जिनमें कलात्मक उत्खनन किया गया है। इसके अतिरिक्त यहां कुछ शिलालेख भी स्थापित हैं। कुछ प्राचीन बुद्ध की प्रतिमाएं भी यहां स्थापित हैं। कुछ भग्न तीर्थों के अवशेष भी यहां मौजूद हैं।
इस स्थान पर बौद्ध, वैष्णव और शैव धर्म से संबंधित मूर्तियों का पाया जाना इस बात की पुष्टि भी करता है कि यहां इन तीनों संस्कृतियों की मिश्रित संस्कृति रही होगी। ऐसा माना जाता है कि यहां बौद्ध मठ थे, जिनमें बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। सिरपुर के निकट होने के कारण इस बात को और बल मिलता है कि यह स्थान कभी बौद्ध संस्कृति का केंद्र रहा होगा। यहां प्राप्त शिलालेखों से यह अनुमान लगाया जाता है कि यहां प्राप्त मूर्ति का समय 8-9वीं शताब्दी है। आज भी यहां महिला पुजारियों की नियुक्ति होती है जो प्राचीन परंपरा है। अप्रैल माह में यहां तीन दिवसीय मेला लगता है और बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं। धार्मिक और पुरातात्विक स्थल होने के साथ-साथ यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी पर्यटकों को आकर्षित करता है।



